बेतरतीब पन्ने-7
मेरी उम्र उन दिनों 18 के आसपास थी। यह वह उम्र होती है, जब बन्दा सोचता है कि दुनिया में उसकी भावनाओं को समझने वाला कोई नहीं है—न माँ, न पिता, न चाचा, न मामा… कोई नहीं। वह अकेला है, निपट अकेला। ऐसे में, अपनी झोली में वह अलादीन के जिन की तरह किसी ऐसे शख्स के आ गिरने की उम्मीद पाल बैठता है, जिससे वह अपनी समूची भावनाओं को साझा कर सके।
मैं दावे से कह सकता हूँ कि वह जिन कल्पना नहीं, एक यथार्थ है और बहुत-से लोगों के दुख-दर्द साझा करने को उनकी झोली में आ बैठता है। कैसे? जिन लोगों के हाथ कागज, कलम और किताब लग जाते हैं, वो उन खुशनसीब लोगों में होते हैं जिनकी झोली में एक-दो नहीं, कितने ही हितैषी और सहायक जिन आ बैठते हैं। उनके साथ जितनी देर चाहो बैठे रहो। उनकी सुनो, अपनी सुनाओ। वो और आप साथ बैठे बतिया रहे हों तो सारी दीवारें बे-कान हो जाती हैं। कमरे से बाहर बात के निकल जाने का तिलभर भी डर नहीं। वैसे ही चंद खुशनसीबों में मैं भी शामिल हो गया था। किताबों के रूप में मुझे हातिमताई का गलीचा मिला हुआ था, जिस पर बैठकर, लेटकर, खड़ा होकर मैं जब भी, जहाँ भी चाहूँ चला जा सकता था। उसी गलीचे पर इस समय मैं बैठा हुआ यह सब लिख रहा हूँ।
किशोरावस्था के उन्हीं दिनों, बुलन्दशहर जैसे थके-माँदे से शहर के पटल पर एक परी आ उतरी। नाम था प्यारी। बला की खूबसूरत। साड़ी डाले तब खूबसूरत। सलवार-सूट डाले तब खूबसूरत। साढ़े पाँच फुटी। गोरी-चिट्टी। छरहरी। तीखे नयन-नक्श। काले घने बाल। एक चोटी बनाती थी हमेशा। चलते वक्त चोटी का चुटीला एक बार उसके दायें नितम्ब से टकराता था, दूसरी बार बायें नितम्ब से। गली-बाजार जिधर से वह मेनका निकलती बड़ी-बड़ी उम्र के विश्वामित्र काम-धाम छोड़ उसकी ओर देख उठते थे। रम्भाएँ भी उसके रूप पर रीझतीं। ढोलक की एक थाप सुनाई देते ही मुहल्लेभर के बच्चे-बूढ़े, औरत-मर्द सबके कान आवाज की दिशा में खड़े हो जाते। हाथ का काम और सामने रखी खाने की थाली को छोड़कर सब के सब उसी दिशा में दौड़ पड़ते थे।चार-पाँच सहेलियों की टीम थी उसकी। ढोलक बजाने वाले शख्स के अलावा सबकी सब नाचने-गाने, लहराने में माहिर। प्यारी उन सब में गजब की नृत्यांगना थी। बहुत बार उसका नाच देखने को मिला। ढोलक की हर थाप पर उसका अंग-अंग थिरकता था।
फिर एकाएक पता नहीं क्या हुआ कि वह टीम से अलग अकेली घूमती नजर आने लगी। हमारे मुहल्ले के भी आखिरी मुहाने पर आकर उदास-सी खड़ी हो जाती थी। मुझे उकसाने वाले तो आदरणीय अमृतलाल नागर सरीखे बहुत-से गणमान्य बुजुर्ग सिरहाने ही बैठे रहते थे। मन हुआ कि उससे बात करनी चाहिए। उसके विगत और वर्तमान के बारे में, इन दिनों की उदासी के बारे में विस्तार से जानना चाहिए। लेकिन यह आसान काम नहीं था। मुहल्ले के लोग उससे बतियाते देखेंगे तो पता नहीं क्या-क्या सोचेंगे! मन के ही दूसरे कोने में बैठे पथ-प्रदर्शकों ने चेताया।
बावजूद इस संकोच के, एक शाम, प्यारी जब मुहल्ले के उस मुहाने पर आकर खड़ी हुई, मैं उसके पास पहुँच गया। हाय, हलो हुई। मुद्दे से अलग इधर-उधर की एक-दो बातें हुईं। उसके बाद मेरे संकोच ने मुझे उसके निकट टिकने नहीं दिया। बातों को बीच में ही छोड़कर वापिस चला आया। लेकिन इस मुलाकात ने मुझमें अगली मुलाकात कर लेने का दम भर दिया। वह सब पूछ लेने का साहस जगा दिया, जो मैं उससे जानना चाहता था।
लेकिन अगली मुलाकात कभी हो न सकी। अगली कई शामों तक वह गली के उस मुहाने पर नहीं आयी। मैं बस इतना जानता था कि वह अमुक ‘सराय’ के आसपास वाले किसी मकान में रहती है। याद नहीं, लेकिन सम्भव है कि उसकी तलाश में उधर का एकाध चक्कर मैंने लगाया भी हो। पूछा किसी से नहीं था, यह तय है। आश्चर्य की बात यह थी कि उसके बाद आसपास के किसी गली-मुहल्ले में क्या, प्यारी बुलन्दशहर में ही कभी नजर नहीं आयी।
कहाँ चली गयी होगी? सुनने में आया था कि ‘इन लोगों’ में परस्पर शादियाँ भी करा दी जाती हैं। अच्छा-खासा दहेज लिया-दिया जाता है। यह बात कितनी सही है, कितनी गलत, नहीं मालूम; लेकिन प्यारी की उन दिनों की मन:स्थिति से यह अनुमान स्पष्ट लगा सकता हूँ कि ‘इन लोगों’ में सुन्दर और नृत्य-निपुण ‘लड़कियों’ की खरीद-फरोख्त बड़े पैमाने पर होती होगी। प्यारी को पहला आघात ईश्वर ने दिया था—रूपवती मादा किन्नर के रूप में पैदा करके। कद-काठी, शारीरिक रख-रखाव की दृष्टि से यह निश्चित था कि वह किसी अच्छा खाते-पीते सभ्य परिवार की सन्तान थी। दूसरा आघात उसे उस सभ्य परिवार से मिला; और तीसरा आघात दिया उसकी सुन्दरता और नृत्य-निपुणता ने, आवाज की खनक ने।
हमारे अनेक पूर्वज कथाकारों ने जिस संकोच को त्यागकर सामाजिक अन्वेषण कर ग्रंथ रचे, वैसा अन्वेषण मुझ जैसा संकोचों में बँधा कोई भी व्यक्ति कभी कर ही नहीं सकता।
प्यारी से हुई वह पलभर की मुलाकात मुझ पर उसका कर्ज थी, जिसे इस रूप में उतारने का प्रयास आज कर रहा हूँ। वह अक्सर याद आती है। मुझे और उसे, काश, एक-दो और मुलाकातों का समय मिला होता। क्रांति को तब भी नहीं होनी थी, मैं जानता हूँ; लेकिन एक युवती (हाँ, उसे युवती कहकर ही सम्मानित करना चाहूँगा मैं) के मन की पीड़ा जो मेरे मन में 52 वर्षों से फँसी हुई है, बाहर निकल जाती। 26-2-22/00:45
(चित्र साभार : गूगल)
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