बेतरतीब पन्ने-2
मूल नाम से इतर अपना लेखकीय नाम कुछ रख लिया जाए, लेखन के शुरुआती दौर में ऐसा अनेक बार मस्तिष्क में आता था। इसलिए नहीं कि अपने पूर्वज कवियों-लेखकों के इस करतब से प्रभावित था; बल्कि इसलिए कि अपना लिखा-छपा घर में पिताजी-चाचाजी आदि सबसे छिपाए रखना जरूरी था। कोर्स की किताबों से इतर तिलभर भी सरकता दिखता था तो धमकाया नहीं जाता था, सीधे पीटा जाता था। इसलिए शुरुआती दिनों में ‘रवि रश्मि’ चलाया। घर पर कुछेक पत्र जब ‘सुश्री रवि रश्मि’ नाम से आने लगे तब दुष्यंत से प्रभावित होकर ‘ब॰ अ॰ दुष्यन्त’ भी कुछ दिन चलाया; लेकिन यह जूठन चाटने जैसा लगा इसलिए बहुत जल्द छोड़ दिया। और भी अनाप-शनाप, पता नहीं क्या-क्या नाम रखे! लेकिन जमे नहीं। कुछ दिन ‘ॠतुराज’ भी मैं रहा। ‘ॠतुराज’ दरअसल मैंने रखा नहीं, मुझ पर लादा गया, मेरे मित्र ‘बरनदूत’ के मालिक और सम्पादक शिवकुमार शास्त्री द्वारा। कैसे? 1977 में जैसे ही दैनिक ‘बरनदूत’ शुरू हुआ, मैं उससे जा जुड़ा। उसके सभी चार पेजों को लिखने-भरने का जिम्मा अनजाने ही अपने कंधों पर लाद लिया। कभी लघुकथाएँ छापीं, कभी कविताएँ, गीत, गजल आदि बहुत-कुछ। जीवन की पहली समीक्षा मैंने ‘बरनदूत’ के लिए ही लिखी और छापी—डॉ॰ कुँअर बेचैन के पहले गीत संग्रह ‘पिन बहुत सारे’ की। वह मेरे गुरु, मित्र और हितैषी थे। दूसरी समीक्षा लिखी कृष्ण कमलेश के लघुकथा संग्रह ‘मोहभंग’ की; किसी भी लघुकथा संग्रह की मेरे द्वारा लिखित वह पहली समीक्षा थी। ये दोनों समीक्षाएँ तब लिखी गयीं थीं, जब मैं समीक्षा का क ख ग भी नहीं जानता था। अवश्य ही ‘अनाड़ी का खेलना खेल का सत्यानाश’ जैसी स्थिति रही होगी। उसे पढ़कर गुरु जी और कृष्ण कमलेश जी पर क्या गुजरी होगी, मैं नहीं जानता। हाँ, इतना महसूस करता हूँ कि उन्हें अधिक अच्छा नहीं लगा होगा। बहरहाल, बेचैन जी का प्रोत्साहन के शब्दों वाला धन्यवादयुक्त पत्र अवश्य आया था। कृष्ण कमलेश जी की प्रतिक्रिया याद नहीं है आयी थी या नहीं। इस अर्थ में वह विशाल हृदय थे कि कटु-आलोचनाओं को कभी अन्यथा नहीं लेते थे। मुझे याद है, 2003 में, जब मैं ‘द्वीप लहरी’ के लघुकथा विशेषांक का संपादन कर रहा था, उन्होंने मुझे भरपूर सहयोग का वादा किया था। उन्हीं दिनों उनका एक पोस्ट कार्ड मिला कि विशेषांक के लिए वह एक लेख भेज रहे हैं; और इस पत्र के शायद दो-चार दिन बाद ही भाई भगीरथ का फोन आया—बलराम, कृष्ण कमलेश को हृदयाघात आ गया, वह नहीं रहे। मैंने तुरन्त निशा व्यास को फोन मिलाकर कुशलता जाननी चाही; लेकिन भरे गले से उन्होंने तसदीक की—“भगीरथ जी ने जो कहा, सच है।”
कृष्ण कमलेश को गये इस वर्ष लगभग 18 वर्ष बीत जाएँगे लेकिन वह लेख, जिसका जिक्र उन्होंने मुझे लिखे अपने अन्तिम पोस्ट कार्ड में किया था, आज तक नहीं पहुँचा।
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