सोमवार, 7 मार्च 2022

जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया…/ बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-10

गणेश से ही जुड़ा एक किस्सा यह भी। 

मामन की ओर जाने वाली सड़क पर 1970 तक बुलन्दशहर के आवासीय क्षेत्र का विस्तार भूतेश्वर मन्दिर से आगे नहीं के बराबर था। मामन रोड पर ही भूतेश्वर मन्दिर से करीब 500 मीटर आगे मिट्टी का एक ऊँचा बाँध था। यह बाँध शहर की नालियों के गन्दे पानी को काली नदी से मिलाने वाले नाले के सहारे-सहारे खड़ा किया गया था। सामान्य दिनों में नाले के पानी से शहर की किसी भी बस्ती को किसी प्रकार की हानि की गुंजाइश नहीं थी; इसका उद्देश्य बाढ़-ग्रस्त काली नदी के बैक वॉटर को नाले के रास्ते शहर में घुसने से रोकना होता था। ‘बाँध’, जिसे आम बोलचाल में हम ‘बंद’ कहते थे, से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर ‘मोहन कुटी’ थी। मोहन कुटी में एक अखाड़ा और एक कुआँ भी था; और बैठने-बतियाने के लिए चबूतरे-चबूतरियाँ भी। मोहन कुटी के बाद खेत और बाग-बगीचे शुरू हो जाते थे। 

गणेश एक शाम खेलते-खेलते बोला—“बलराम, मोहन कुटी के पास वाले खेत में एक पोखर है न!…”

“हाँ, है।” मैंने हामी भरी।

“उसमें सिंघाड़े की बेलें बोई हुई हैं।” उसने रहस्योद्घाटन के अंदाज में बताया।

“तुझे कैसे मालूम?” मैंने पूछा।

“कल फारिग होने के बाद जब मैं उसकी तरफ बढ़ा तो वहाँ बैठे एक बुड्ढे ने मुझे डाँटा—ए लड़के, टट्टी कहीं और जाकर धो, इसमें खाने की चीज बोई हुई है।… मैने पूछा—क्या? तो बुड्ढे ने कहा—सिंघाड़ा!”

इतना बताकर गणेश चुप नहीं बैठा। बोला—“मैंने सब जासूसी कर ली है। बुड्ढा सुबह से दोपहर तक पोखर की रखवाली पर बैठता है। बारह बजे के आसपास खाना खाने को घर जाता है और एक घंटे बाद लौटता है।”

“इस बीच कोई नहीं रहता है?” मैंने पूछा।

“कोई नहीं।” गणेश बोला, “भगवान कसम।… एक काम कर, कल बारह बजे चलते हैं एक-एक झोला लेकर।”

“ठीक है।” मैंने कहा, “लेकिन कल नहीं परसों।”

“परसों क्यों?”

“कल इतवार है, ” मैंने कहा, “छुट्टी का दिन। कल पूरे दिन लोगों की आवाजाही उधर रहेगी।”

“ठीक है।…” गणेश बोला, “लेकिन परसों मुझे कुछ काम है। हम उससे अगले दिन चलेंगे।”

कार्यक्रम की योजना बनाकर हम अपने-अपने घर चले गये। नियत दिन हमने कोई बहाना बनाकर अपने-अपने स्कूल की छुट्टी की। नियत समय पर अपने-अपने घर से एक-एक झोला बगल में दबाया और बारह बजे के आसपास पोखर की ओर निकल गये। हमारे मोहन कुटी पहुँचने तक, हमने दूर से देखा—बुड्ढा घर नहीं गया था। हमें इसीलिए काफी समय मोहन कुटी की एक बेंच पर लेट-बैठकर बिताना पड़ा। 

बेंचों पर हम कभी लेटते, कभी बैठते। घड़ी तो हम पर होती नहीं थी। लेकिन अनुमान लगाया कि बैठे-बैठे हमें दो तो बज ही गये होंगे।

“आज दिन क्या है?” ऊबकर मैंने गणेश से पूछा।

“आज?” गणेश कुछ सोचता-सा बोला, “सोमवार… नहीं-नहीं, मंगल है आज।”

“मंगल ही है न!”

“हाँ, पक्का।” उसने कहा।

“तो आज बुड्ढा घर नहीं जायेगा।” मैंने कहा।

“क्यों?” गणेश ने आश्चर्य से पूछा।

“आज के दिन वह व्रत रखता होगा, ” मैं बोला, “इसीलिए अब तक नहीं टला है यहाँ से।”

“ओह!” गणेश के गले से एकाएक ठण्डी आह-सी निकली।

“चलो, घर चलते हैं।” मैंने उठकर चलते हुए कहा। इन्तजार इतना लम्बा हो चुका था कि और-अधिक बैठना सम्भव नहीं था। गणेश ने प्रतिवाद नहीं किया। उठ खड़ा हुआ। बेआबरू-से होकर थके-थके कदमों से हम खरामा-खरामा उस कूचे से बाहर आ गये।

अगले दिन बुधवार था। हमने तय किया कि हम घर से स्कूल के लिए निकलेंगे। सुबह की हाजिरी दर्ज कराएँगे और पहली रेसिस में ही अपना-अपना स्कूल छोड़कर मोहन कुटी पहुँच जाएँगे। सिंघाड़ों के लिए एक-एक अतिरिक्त झोला अपने-अपने बस्तों में रखना हम नहीं भूले थे।

क्लास से और फिर स्कूल से गायब होना हमारे लिए नई बात नहीं थी। गणेश, शर्मा इण्टर कॉलेज में पढ़ता था और मैं डीएवी में। दोनों स्कूलों के बीच अच्छी-खासी दूरी के बावजूद हम तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार बारह बजे के आसपास मोहन कुटी में जा मिले। उस दिन हमें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। पहुँचने के 15-20 मिनट बाद ही बुड्ढा घर के लिए रवाना हो गया। हमने आव देखा न ताव, बस्ते संभालकर ताबड़-तोड़ पोखर की ओर भाग खड़े हुए। बस्तों को किनारे पर पटककर पोखर में जा कूदे और सिंघाड़ों से झोलों को भरना शुरू कर दिया। 

पहली बार सिंघाड़ों के भण्डार में घुसे थे। बहुत-कम समय में हमने अपने झोले गरदन तक भर लिए। उस आपाधापी में यह ख्याल ही नहीं रहा कि पोखर के पानी से बाहर भी निकलना है। सोचते रहे कि कुछ सिंघाड़े और तोड़ लें।

अपनी इस लापरवाही का खामियाजा हमें हाथों-हाथ भुगतना पड़ा। बुड्ढा खाना खाकर वापस लौट आया। उसे देखकर हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम। आते ही बुड्ढे ने सबसे पहले तो किनारे पर रखे हमारे बस्ते अपने काबू में किये, फिर खासा पुचकारते हुए पोखर से बाहर आने को हमारा आह्वान किया। डरते-सहमते हम पोखर से बाहर आये। दोनों झोलों में भरे सिंघाड़ों को उसने किनारे पर रखी गहरी-सी टोकरी में उलट देने को कहा और हमें एक ओर बैठ जाने का हुक्म सुनाया। हम बैठ गये।

“अपने-अपने बाप का नाम बताओ।” बुड्ढे ने गुस्से में भरकर कहा। 

हमने रोना शुरू कर दिया। मरना मंजूर था लेकिन बाप का नाम बताना तो किसी हाल में मंजूर नहीं था। और हुआ भी यही। बुड्ढा बाप का नाम जानने की भरसक कोशिश करता रहा और हम बाप का नाम न बताने की जिद पर अड़े रहे। घंटों बीत गये। कोई भी पक्ष टस से मस नहीं हुआ, न वह न हम। रोते-रोते हमें जब काफी समय बीत गया तो पसीजकर बुड्ढे ने हमसे पूछा, “भूख लगी है?”

दहशत के मारे हालाँकि भूख-प्यास सब नदारद थी, लेकिन हमने ‘हाँ’ में गरदन हिलाई। हमारे ही द्वारा तोड़े गये सिंघाड़ों से भरी टोकरी की ओर इशारा करके उसने दयापूर्वक कहा, “खाते रहो इसी में से ले-लेकर।”

हम बेशर्मों ने टोकरी से उठाकर सिंघाड़े छीलने और खाने शुरू कर दिये। दया के वे निवाले हमें परोसकर बुड्ढे ने सोचा होगा कि हम अपने-अपने पिता का नाम उसे बता देंगे। लेकिन एक कहावत है न—जालिम आदमी पीटता कम है, घसीटता ज्यादा है। वह हमें याद थी। ईश्वर इस धृष्टता के लिए माफ करे, लेकिन सच यही है कि हमारे मन में पिता की छवि उन दिनों ‘जालिम’ की ही हुआ करती थी। बुड्ढा यदि हमें पीटता भी तो वह पिटाई हमें मंजूर थी, लेकिन घसीटे जाना बिल्कुल भी मंजूर नहीं था। आँखों ही आँखों में हमने तय किया और न तो मैंने और न महेश ने पिताजी का नाम बताया। 

शाम चार बजे के आसपास आखिर बुड्ढे का दिल पसीज गया। बोला—“आधा-आधा झोला भरकर अपने घर जाओ।… और सुनो, आगे से ऐसी गिरी हुई हरकत कभी भी, कहीं भी मत करना।”

“जी बाबा।” इस दयानतदारी पर हमने आँसू पोंछते हुए उस बुजुर्ग के पाँव छुए। दयानतदारी इसलिए कि उस समय तो हमारी जान और बस्ते बख्श दिया जाना ही बड़ी नियामत थी। बकौल साहिर लुधियानवी--जो मिल गया उसी को मुकद्दर ... मानकर खैरात में मिले मुट्ठीभर सिंघाड़ों को लेकर घर वापस पहुँचे। मुट्ठीभर इसलिए कि हमारे द्वारा तोड़े गये सिंघाड़ों की तुलना में वे कम ही थे। बेइज्जती की बात तो घर पर क्या बतानी थी, अपनी वीरता के ही किस्से सुनाए कि कैसे हम सिंघाड़े वाली पोखर के रखवाले को छकाते हुए यह सब लाये हैं। घरवालों ने भी जरूरी हिदायतें जरूर दी होंगी, जो अब याद नहीं हैं। बोध और उपदेश जैसी अच्छी बातें याद ही कब रहती हैं। याद तो सिर्फ बेइज्जतियाँ ही रहती हैं इसीलिए आज लिखी जा रही हैं। हम भाग्यवान हैं कि हमारे हिस्से में वे भरपूर आईं। उन्हीं के चलते कोई बेइज्जती हमें आज भी बेइज्जती महसूस नहीं होती है। इज्जत की जरूरत तो उनके चलते पहले भी कभी महसूस नहीं हुई।  

06-3-22/21:03

(चित्र साभार : गूगल)

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