सोमवार, 7 मार्च 2022

लापरवाही : तेरा ही आसरा/बलराम अग्रवाल

 बेतरतीब पन्ने-5


इस संस्मरण को मैं किसी मर्यादा के तहत नामरहित लिख रहा हूँ।  

मेरे एक घनिष्ठ मित्र थे जो गाजियाबाद के निवासी थे और नौकरी के सिलसिले में बुलंदशहर के एक मुहल्ले में किराये पर मकान लेकर रहते थे। मित्र थे, लेकिन उम्र में इतने बड़े कि मैं जब 12वीं कक्षा का छात्र था, तब तक उनका विवाह हो चुका था और 1975-76 तक वह तीन बच्चों के पिता बन चुके थे। वह मुझे नैतिक और आध्यात्मिक बहुत-सी बातें सिखाया और समझाया करते थे, इस नाते मेरे गुरु भी थे, हितैषी भी थे और बड़े भाई भी थे। 1976 में उनकी ही सिफारिश पर एक जगह मुझे नौकरी करने का अवसर मिला था। वह एक अस्थाई पद था जोकि सिर्फ 6 माह के लिए था। 

संस्थान में सभी मेरे और उनके बीच के भाईचारे से परिचित थे। एक दिन हुआ यह कि वे काम पर नहीं आए। हमारे एक प्रौढ़ सहकर्मी ने, जो उनके ही मोहल्ले के निकट रहते थे, उनकी पत्नी के हवाले से मुझे बताया कि किसी बात पर नाराज होकर वह सुबह-सुबह घर से निकल गए हैं। 

मुझे उनकी चिंता हुई। यह भी चिंता हुई कि तीन-तीन बच्चों के साथ अकेली भाभी जी कैसे उन्हें तलाश करेंगी! 

शाम को छुट्टी होने के बाद मैं सीधा उनके घर पहुंचा। पता चला कि खुले स्वभाव की होने के कारण भाभी जी मोहल्ले के 1-2 युवकों से हँस-बोल लेती थीं। यह हँसना-बोलना मोहल्ले की परंपरावादी सोच के एकदम खिलाफ था। परिणाम यह हुआ कि मोहल्ले की औरतों के बीच भाभी जी 'चरित्रहीन' के रूप में चर्चित हो गईं। यह चर्चा भाभीजी के कानों में भी पड़ी, और प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने उन औरतों की ओर देख-देख कर उन युवकों से हंसना-बतियाना शुरू कर दिया। इससे वे इतनी भड़कीं कि मोहल्ले के पुरुषों ने एकजुट होकर एक दिन भाईसाहब को समझाया कि वह 'पत्नी की लगाम को जरा  कसकर रखें'। आगे, इसी मुद्दे पर, मोहल्ले से काफी दूर रहने वाले उनके मकान मालिक द्वारा दबाव डलवाया गया कि वे मकान खाली कर दें। 

इस प्रकार, एक सीधे-सादे, चरित्रवान और इज्जतदार इंसान के सम्मान की धज्जियाँ एक तरफ की नासमझी और दूसरी तरफ की जिद के कारण मोहल्ले से लेकर दफ्तर तक उड़ गईं।

तो, बात चल रही थी भाईसाहब के नाराज होकर सुबह-सुबह घर से निकल जाने की। मिलने पर भाभी जी ने कहा--"अफसोस की बात यह है कि मोहल्ले वालों की बातों में आकर ये भी शक करने लगे हैं! तुझे नहीं मालूम, साइकिल उठाकर  किसी न किसी बहाने दोपहर को एक चक्कर घर का लगाने लगे हैं।" 

मैं चुपचाप उनकी बातें सुनता और भाईसाहब की शंकालु दृष्टि पर कुढ़ता रहा। भाभी जी ने शंका जताई कि भाईसाहब उनकी शिकायत लेकर गाजियाबाद उनके भाई के पास गए होंगे। रात धमकी दे रहे थे कि तेरे (भाभी जी के) भाई को लेकर ही लौटूँगा। बहुत मुमकिन है कि रात को न लौट पाएँ। 

मोहल्ले में उनके विरुद्ध तनावपूर्ण वातावरण था। इस डर के कारण कि मोहल्ले के लोग उन्हें अकेली जानकर झगड़ा-फसाद न करने लगें, बच्चों की और अपनी सुरक्षा के मद्देनजर उन्होंने मुझसे अनुरोध किया--"भैया, माताजी- पिताजी से कहकर रात को सोने के लिए आ जाना।" 

हमारे बीच अच्छे पारिवारिक संबंध थे, इसलिए मैंने कहा कि वे बिल्कुल ना घबराए, ट्यूशन्स से मुक्त होकर  9-10 बजे तक मैं पहुँच जाऊँगा।

और, गजब की बात यह हुई कि भाभी जी को दिया हुआ अपना आश्वासन मुझे अगली सुबह उस समय याद आया जब ऑफिस जाने के लिए मैं अपनी साइकिल बाहर  निकाल रहा था। मुझ जैसा लापरवाह व्यक्ति किसी की भी हिफाजत नहीं कर सकता--मैंने मन ही मन अपने-आप को कोसा, खूब-खूब धिक्कारा। इस धिक्कार को मनोमस्तिष्क पर लादे-लादे चेतनहीन मशीन की तरह साइकिल के पैडल नीचे-ऊपर करता मैं ऑफिस जा पहुँचा। जैसे ही सीट की ओर बढ़ा, भाईसाहब अपनी सीट पर बैठे दिखाई दे गए! मैंने सोचा कि नाराजगी के चलते गाजियाबाद से लौटकर घर जाने की बजाय सीधे ऑफिस ही न आ गए हों। लेकिन उस समय उनसे कुछ कहना-पूछना उचित नहीं था। वह और मैं अपने-अपने काम में लग गए। लंच के समय हम दोनों एकांत में बैठे। 

पूछने पर, भाईसाहब ने भी वही कहानी दोहराई जो भाभी जी ने बताई थी। अंतर यह था कि भाईसाहब मोहल्ले के मगरमच्छों से वैर मोल लेना उचित नहीं समझते थे और भाभी जी थीं कि सीता माता की तरह आग के आर-पार जाने का रास्ता अख्तियार करने पर  अड़ी थीं। 

"आप गाजियाबाद गये थे?" मैंने पूछा।

"नहीं।" उन्होंने कहा।

"कहाँ गये थे फिर?"

"घर से निकलकर कुछ देर इधर-उधर भटका," उन्होंने बताया, "फिर सिनेमा हॉल की ओर बढ़ गया। सुबह 9 से 12 वाले शो से लेकर रात के 9 से 12 वाले शो तक सभी शो देखता रहा।"

"उसके बाद?"

"रात एक बजे घर पहुँच गया।" वह बोले, "बच्चे सो चुके थे लेकिन कमला जाग रही थी।"

मैंने मन ही मन अपनी आँखें मूँदी और परमात्मा की ओर हाथ जोड़े--मुझमें आपने कूट-कूट कर लापरवाही न भरी होती तो कल रात अनजाने संदेह के घेरे में आ सकता था मैं। मददगार की बजाय विश्वासघाती मुजरिम के कठघरे में खड़े रहना पड़ता उम्रभर।

1976 के बाद, कल पहली बार यह घटना मीरा को बताई थी, नाम छिपाये बिना, यथार्थ रूप में।

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