सोमवार, 7 मार्च 2022

साहित्य से नाता न जुड़ता तो…/ बलराम अग्रवाल

 बेतरतीब पन्ने-4


विद्यालयों में उन दिनों शैक्षिक सत्र 20 मई को परीक्षा परिणाम घोषित करने के साथ ही समाप्त होता था। उसके बाद 30 जून तक छुट्टियाँ। इस बीच हमें ननिहाल आदि अनेक जगहों पर घुमाने के लिए लेजाया, भेज दिया जाता था।  1963 में पाँचवीं कक्षा पास करके मैं छठी में प्रवेश के लिए सक्षम हुआ। बुलन्दशहर के राजकीय इण्टर कॉलिज और डीएवी इण्टर कॉलिज में प्रवेश हेतु परीक्षाएँ दीं। राजकीय इण्टर कॉलिज में नम्बर नहीं आ सका, डीएवी में आ गया। राजकीय इण्टर कॉलिज उन दिनों अनुशासन के और डीएवी इण्टर कॉलिज  गुंडई-लफंगई के लिए ख्यात- कुख्यात थे। शहर में अन्य तीन और इण्टर कॉलेज थे—मुस्लिम इण्टर कॉलेज, शिवचरण इण्टर कॉलिज और शर्मा इण्टर कॉलिज। इन तीनों का नाम न अनुशासितों में था न गैर-अनुशासितों में। जिन्हें उपर्युक्त दोनों में प्रवेश नहीं मिलता था, उन्हें इन तीनों में से किसी भी एक में अवश्य मिल जाता था। इनका हाल क्या था! उदाहरण के लिए एक वाकया सुनाता हूँ— 

विज्ञान के ही दूसरे सेक्शन में पढ़ने वाला मेरा एक मित्र कक्षा ग्यारह के परीक्षा परिणाम के बाद स्कूल में दिखाई ही देना बन्द हो गया। इतनी गहरी भी मित्रता नहीं थी कि उसके बारे में इधर-उधर पूछते, तलाश करने उसके मुहल्ले में जाते। नये सिरे से अपनी पढ़ाई और खेल-कूद में लग गये। बारहवीं बोर्ड के परीक्षा-परिणाम के बाद एक दिन अचानक बाजार में उससे मुलाकात हो गयी। उसने बड़े उत्साह से हाथ मिलाया। पूछा, “क्या हुआ बलराम, तू तो दिखाई ही देना बंद हो गया?”

ये लो!—मैंने मन में सोचा—ये साला खुद गायब है और तोहमत मुझ पर लगा रहा है!!

“तू भी दिखाई नहीं दिया पूरे साल!” मैं बोला।

“हाँ,” उसने कहा, “मैं दरअसल ग्यारहवीं में फेल हो गया था यार!”

“ओह!” मेरे मुँह से निकला।

“पिताजी ने खाल उधेड़कर रख दी।” वह बोला, “हम बाजार में खड़े हैं इसलिए दिखला नहीं सकता। घर पर होते तो दिखलाता—चूतड़ अभी तक लाल हुए पड़े हैं उस मार से।”

“फिर?” मेरे पूछने का मतलब था, उसके बाद क्या हुआ।

“पिताजी ने अपनी जान-पहचान के एक कॉलिज से ग्यारहवीं पास की टी॰सी॰ कटवाई और बारहवीं कक्षा में शर्मा इण्टर कॉलिज में दाखिल करा दिया।” उसने कहा; फिर पूछा, “तूने भी तो बारहवीं का ही एग्जाम दिया होगा इस बार?”

“हाँ।”

“क्या रहा?” 

“कम्पार्टमेंट आयी है यार।” मैंने मुँह लटकाकर कहा; हालाँकि फेल हो गया था। यह सन् 1970 की बात है।

“तू सुना, तेरा क्या रहा?” मैंने उससे पूछा।

“हिस्ट्री बना दी, इतिहास रच दिया तेरे यार ने यार!” वह प्रफुल्लित स्वर में बोला, “टॉप कर दिया शर्मा इण्टर कॉलिज को।”

“अरे वाह!” मेरे मुँह से एकाएक निकला, “कितने नम्बर आए?”

“नम्बर तो कम ही हैं यार, ” उसने कहा, “सेकेंड डिवीजन आयी है; लेकिन… पिताजी बहुत खुश हैं।”

"नम्बर कितने आए?" मैंने पुन: पूछा तो उसने प्राप्तांक बताये। वे मेरे अनुत्तीर्ण के प्राप्तांक से दो-चार कम ही थे। मैं फेल क्यों हुआ, इस पर बाद में कभी लिखूँगा।

“सिकाई नहीं की फिर पिछले साल की पिटाई वाली जगहों पर पिताजी ने?” मैंने मजाक में उससे कहा और हम दोनों हँस पड़े। 

बारहवीं पास करने के बाद उसने खुर्जा के पॉलिटेक्नीक विद्यालय में पढ़ाई की और इंजीनियर हो गया। उसके परिवार वाले शिक्षित और   दूरदर्शी थे। उन्होंने रोजगार केन्द्रित शिक्षा की ओर ध्यान दिया। हम, अशिक्षित और  दृष्टिहीन थे। बी एससी, एम एससी, बीटीसी, बी एड के अलावा कुछ जानते ही नहीं थे। ये ऐसी लुभावनी डिग्रियाँ थीं जो बहुत ऊँचे सपने दिखाती थीं। उच्च-स्तरीय रहे तो ठीक; सामान्य विद्यार्थी रहे तो रोजगार की दिशा में पेट के बल रगड़ते-घिसटते जाने को खुरदुरी सड़कें मौजूद थीं ही। अगले साल यानी 1971 में बारहवीं पास करके मैंने बी एससी में प्रवेश लिया और बेरोजगारों की लाइन में लग गया। लाइन में क्या लगा, 1972 से 1977 तक के पाँच साल हर तरह की दरिद्रता और अपमान के भोगे। जूते ही नहीं घिसे, एड़ियाँ भी फट गयीं। अवसाद के व्यूह में मन घिर गया। गनीमत यह रही कि साहित्य से नाता जुड़ गया और जुड़ा ही रहा। साहित्य से नाता न जुड़ता तो…  निश्चित ही अवसाद हावी हो गया होता। किसी भी तरह की 'गॉडफादरशिप' से अनभिज्ञ और अछूता मैं क्या कर रहा होता? बेशक, पकौड़े ही बना और बेच रहा होता।

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