सोमवार, 7 मार्च 2022

चिड़िया की आँख और कुतिया के पिल्ले / बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-8

पन्ने बेतरतीब दरअसल इसलिए हैं कि लिखना कुछ चाहता हूँ और लिखने के लिए टाँग कोई और वाकया अड़ा देता है।

एक बार हुआ यों कि पिताजी के पास उनके ठीये पर गया हुआ था। घर के लिए धुली मूँग की दाल लानी है, इस खबर के साथ माताजी ने रवाना किया था। जाकर पिताजी को बताया तो उन्होंने दाल के रेट लाने के लिए एक पंसारी की दुकान पर भेज दिया। रेट पूछकर आया तो पिताजी ने पूछा—“और, छिलके वाली मूँग का क्या रेट था?”

“आपने उसका रेट लाने को कब कहा था?”

“बेटे, जिस काम के लिए जाते हैं, उसके आसपास के कामों पर भी नजर रखते  हैं।” पिताजी ने समझाया।

पिताजी के बराबर में लाल मिर्च का ठीया लगाते थे—बाबा अल्ला मेहर। लम्बे, छरहरे। काले पत्थर को तराशकर निकाले गये थे वह बुजुर्ग। सफेद बाल, ऊपर को तनी हुई सफेद मूँछें। घुटनों से ऊपर तक धोती बाँधते थे। उसके ऊपर बिना कॉलर की, जेब वाली सफेद बंडी पहनते थे। सफेद, गांधी टोपी। सभी बच्चों की  शादी कर चुके थे। बच्चे भी सब बाल-बच्चों वाले थे और अपने-अपने घरों में रहते थे। ये अलग, अकेले। विधुर थे। खुद कमाना, खुद पकाना, खाकर सो पड़ना। सिनेमा, स्वांग आदि देखने के शौकीन थे। सिनेमा का रात को आखिरी शो देखते थे हमेशा। इतना ही नहीं; सुबह आकर पिताजी आदि सभी ठीयेदारों को देखी गयी फिल्म की स्टोरी सुनाने का आनन्द लूटना भी इनका शौक था। स्टोरी या किस्सा सुनाने का उनका अलग ही अन्दाज और मुद्रा होती थी जिन्हें लिख पाना कम से कम मेरे लिए तो आसान नहीं है। वह अन्दाज और वह मुद्रा मेरे लिए ‘गूँगे का गुड़’ है। उनके पास हर वाकये की तरफदारी या मुखालिफत में सुनाने के लिए एक किस्सा होता था। बिना छिलके वाली दाल का रेट पूछकर न आने की बात उनके कानों में पड़ी तो उठ आये अपने ठीये से। पिताजी से बोले, “लाला, यह शिफ्त हरेक में नहीं होती।”

आ गये चाबी लगाने!—मैं मन ही मन डरा कि ये कोई ऐसा किस्सा न सुनाने लगें जो पिताजी के बारूद को चिंगारी दिखा दे।

“ऐसा हुआ कि दरबार में आकर बादशाह अकबर को उनके एक मुलाजिम ने खबर दी कि उनकी पालतू कुतिया आज सुबह-सुबह ब्या गई है।” बाबा अल्ला मेहर ने सुनाना शुरू किया—

“अरे वाह!” अकबर ने खुश होकर कहा और मुलाजिम को ईनाम देकर विदा कर दिया। उसके बाद अपने एक दरबारी से कहा--"देखकर आओ, कुतिया ठीक-ठाक है कि नहीं?" वह दरबारी गया और कुछ देर बाद आकर बोला—“कुतिया एकदम सही-सलामत है जहांपनाह।”

“कितने बच्चे दिये हैं उसने?” अकबर ने पूछा तो वह मुँह लटकाकर बोला—“उन्हें तो मैंने नहीं गिना जहांपनाह!”

अकबर ने तब दूसरे दरबारी से कहा—“जाकर देखो, कितने बच्चे दिये हैं कुतिया ने!”

वह गया और आकर बोला—“चार या पाँच पिल्ले दिये हैं जहांपनाह!”

“चार या पाँच? ठीक-ठीक बताओ।"

"माफी चाहता हूँ हुजूर, कुतिया उनको दबाए लेटी थी, इसलिए ठीक-ठीक गिन नहीं सका।"

बादशाह ने तीसरे आदमी को भेजा। उसने आकर बताया, "पाँच पिल्ले दिये हैं हुजूर!"

“वाह!” अकबर खुश होकर बोला; फिर पूछा—“कुतिया जैसे रंग के है या…?”

“माफी चाहता हूँ जहांपनाह! इस बात का ख्याल तो मैंने नहीं किया।” वह सिर झुकाकर बोला।

इतने में बीरबल दरबार में दाखिल हुआ। आते ही बोला—“बहुत-बहुत मुबारक हो जहांपनाह!”

“पहले तो यह बताओ कि यह दरबार है या सराय? इतनी देर में क्यों हाजिर हो रहे हो?” अकबर ने नाराजगी के साथ कहा, “फिर यह बताओ कि मुबारकबाद किस खुशी के लिए है?” 

“देरी के लिए वाकई माफी चाहता हूँ हुजूर!” बीरबल ने कहा, “दरबार के लिए घर से तो नियत समय पर ही निकला था और दाखिल भी सही समय पर हो गया था; दाखिल होते ही पता चला कि हुजूर की बहुत प्यारी पालतू कुतिया ब्या गयी  है। बस, मैंने उसकी खैरियत देख आना बेहतर समझा। कुतिया और पिल्ले सभी सेहतमंद हैं हुजूर। कुल पाँच पिल्ले दिये हैं जिनमें तीन काले-सफेद हैं, एक भूरा-सफेद और एक काला है। इसी खुशी की मुबारकबाद है हुजूर!”

“देखा?” बीरबल की बात सुनकर अकबर ने सभी दरबारियों से कहा, “भेजे जाने के बावजूद तीन-तीन दरबारी जिस ब्यौरे को नहीं ला पाये, बीरबल ने बिना भेजे ही वह सारा ब्यौरा ला दिया! इसीलिए यह आदमी मेरे दिल में बसता है।…" अकबर-बीरबल का यह किस्सा सुनाकर बाबा अल्ला मेहर ने मुझसे कहा, “तो बेटा, जब भी जाओ, सिर्फ कुतिया को देखकर मत चले आओ। यह देखो कि उसने बच्चे कितने दिये हैं, किस-किस रंग के दिये हैं!”

इस किस्से को सुनकर हाथों-हाथ मेरे भीतर एक तर्क सूझा; लेकिन उस तर्क को मैं पेश नहीं कर सकता था। पेश करने के जवाब में यह जुमला गाल पर थप्पड़ की तरह पड़ सकता था कि—“लाला, तुम्हारा यह लड़का जिन्दगी में कभी कामयाब नहीं हो सकता।”

उपर्युक्त घटना के लगभग 57 साल बाद उस तर्क को पहली बार आज उस समय लिखने की हिम्मत कर रहा हूँ जब डाँटने के लिए न तो पूज्य पिताजी इस दुनिया में हैं और न ही उनके समर्थन में कोई किस्सा सुनाने के लिए बाबा अल्ला मेहर जिन्दा हैं।

बहुत-कम उम्र में ही हमें गुरु द्रोणाचार्य द्वारा कौरव-पांडव राजकुमारों की तीरंदाजी परीक्षा की कहानी पढ़ाई-सुनाई जाती रही है। उसमें चिड़िया की आँख के साथ-साथ इधर-उधर का भी समस्त दृश्य देखने वाले सभी राजकुमार फेल हो जाते हैं, पास होता है केवल अर्जुन, जिसने अपना ध्यान केवल उद्देश्य, गुरु द्वारा निर्धारित चिड़िया की केवल आँख पर केन्द्रित किया था। 

अब, कहाँ तो यह शिक्षा कि दिमाग को इधर-उधर मत भटकाओ, चिड़िया की केवल आँख पर ध्यान केन्द्रित करो; और कहाँ यह ज्ञान कि धुली दाल का रेट मालूम करने भेजा था तो छिलके वाली दाल के दाम भी पूछकर आने की बुद्धिमानी दिखानी थी और उसके समर्थन में कुतिया के पिल्लों वाला किस्सा भी हाथों-हाथ हाजिर था!

इसी क्रम में मुझे अपनी सहकर्मी जोगिन्दर कौर भी ससम्मान याद आती हैं। अनुकम्पा आधार पर अपने दिवंगत पति के स्थान पर नियुक्त थीं। वैधव्य ने उनके भीतर के ‘जौली’ व्यक्तित्व को दबा डाला था, फिर भी कभी-कभार वह फूट ही पड़ता था। उनके सामने ही बैठने वाला एक सहकर्मी ‘कासना’ भी था। बहुत सज्जन, सीधा-सादा आदमी। उसका अत्याधिक सीधापन जोगिन्दर कौर के जौलीपन को ओढ़ी हुई गम्भीरता की परत को तोड़कर अक्सर ही ऊपर ले आता था। मसलन, एक बार किसी दूसरी सीट पर बैठकर काम कर रही जोगिन्दर कौर ने उससे कहा—“कासना, मेरी मेज की ऊपरी दराज से स्केल निकालकर देना जरा।”

कासना ने दराज खोली और अच्छी तरह टटोलकर बोला—“मैडम, इसमें तो स्केल नहीं है!”

जवाब सुनते ही जोगिन्दर बोली—“कासना, तुझे अगर कोई बता दे कि तेरी घरवाली फलां कमरे में है, और उसमें वो तुझे दिखाई न दे तो तू दूसरे किसी भी कमरे में देखने उसे बिल्कुल नहीं जाएगा, मुझे यकीन है।”  

यह बात सुनते ही कासना खिसिया-सा गया। उसने मेज की दूसरी, फिर तीसरी दराज खखोड़ी और स्केल निकालकर मैडम को दे दिया। 


परसों, यानी 26 तारीख को आदित्य से मैंने कहा कि—“अमुक रैक के ऊपर से दूसरे खाने में परसाई समग्र रखा है। उसका भाग एक और दो उठा ला।”

वह गया और आकर बोला—“ऐसी कोई किताब वहाँ नहीं है।”

वही, ‘कासना’ वाला जवाब। वही, चिड़िया की आँख के अलावा इधर-उधर कुछ भी नहीं देखने की शिक्षा का परिणाम! 

वही, बाबा अल्ला मेहर द्वारा पेश अकबर-बीरबल के किस्से से अपरिचित रहने का परिणाम!

इस दोगली दुनिया में सफल होना है, तो ‘चिड़िया की आँख’ पर नहीं टिके रहना है। मतलब यह कि चिड़िया की आँख के तात्पर्य को समझकर अर्जुन भी बने रहना है और सूक्ष्म से विस्तार पाकर बीरबल भी बनना है।

28-2-2022/00:45

(चित्र साभार : गूगल)

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