गुरुवार, 17 मार्च 2022

सिनेमा टिकटों की ब्लैक-मार्केटिंग / बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-14

‘दोस्ती’ का पढ़ाकू युवक पिताजी के माध्यम से कई साल तक परेशान करता रहा। उससे पहले हमारा पड़ोसी सहपाठी था, जिसकी वजह से अक्सर ही कान-खिंचाई हो जाया करती थी। 
 
उन दिनों साइकिल के रिम को लकड़ी या लोहे की एक डंडी की मदद से सड़कों पर घुमाने का खेल ही मुहल्ले से बाहर तक जाता था। अन्यथा अधिकतर खेल मुहल्ले की सीमा में ही खेले जाते थे। आपस में हम अनेक तरह के जो खेल खेला करते थे उनमें कंचे, गुल्ली-डंडा, कबड्डी, गेंद-तड़ी, सिगरेट की डिब्बियों के खाली पैकेट्स को एक गोल घेरे के बीचों-बीच रखकर दूर खींची एक रेखा पर खड़े होकर चपटे पत्थर से निशाना लगाकर उन्हें निकालना, बीड़ी-बंडलों के रैपर्स से ‘जुआ’ खेलना आदि-आदि। कंचे, गुल्ली-डंडा, गेंद, सिगरेट के पैकेट्स और बीड़ी-बंडल्स के रैपर हमारी अमूल्य संपत्ति हुआ करती थी। 
 
हम जब मगन-मन गली में खेल रहे होते थे, हमारे उस पड़ोसी सहपाठी की नजर बाजार से या मन्दिर से घर की ओर चले आ रहे हमारे पिताजी पर पता नहीं कैसे पड़ जाती थी! मैं आज भी उसकी तेज नजर का कायल हूँ और सोच नहीं पाता हूँ कि वह कैसे पिताजी के आने को भाँप जाता था। इस इंटेलिजेंस की बदौलत उसे जरूर ही ‘रॉ’ में प्रवेश मिलना चाहिए था। अपने जाने की भनक लगाए बिना वह खेल के बीच से पता नहीं कब गायब हो जाता था। घर के भीतर से बस्ता लाकर आनन-फानन में अपने चबूतरे पर ला पटकता था। सुन्दर लिखाई में लिखी अपनी तख्ती को सुखाने के बहाने दीवार पर चढ़ चुकी धूप के साये में खड़ी करता और कोई भी किताब हाथ में ले, बोल-बोलकर पढ़ना शुरू कर देता था। इतनी तेज आवाज में कि, अपने ही विचारों में मग्न पिताजी की विचार-श्रृंखला उसकी आवाज से टूट जाए। वह उसे पढ़ता देखते और घर में घुसने की बजाय मेरे इलाज के लिए आगे बढ़ आते। गली में अन्य बालकों के साथ खेल रहे मेरे कान को पकड़ते और खींचकर घर ले जाते! 
 
आगे की कहानी बताने की जरूरत नहीं है। यह किस्सा अनेक बार दोहराया जाता था लेकिन पिताजी को मैं कभी-भी यह नहीं समझा सका कि वह आपको देखकर यह ड्रामा करता है! 
 
‘दोस्ती’ के बाद फिल्में देखने का चस्का-सा लग गया। सबसे आगे वाली सीटों की टिकट उन दिनों 70 पैसे की हुआ करती थी। इन 70 पैसों के जुगाड़ के लिए 175 पेज की एक कोरी कॉपी कमीज के नीचे पाजामे में खोंसनी पड़ी थी। माताजी से कहा—“स्कूल के काम के लिए एक कॉपी लानी है।”
 
“अपने पिताजी के पास चला जा। वह दिला देंगे।” माताजी ने कहा।
 
“उतना समय नहीं है, काम करना है। अभी चाहिए।” पहली बात तो यह कि मुझे अर्जेंट कॉपी नहीं पैसे चाहिए थे! दूसरी यह कि पिताजी के पास जाने से कॉपी मिलती, पैसे नहीं। 
 
“कितने की आएगी?” माताजी ने पूछा।
 
“75 पैसे की।” मेरा मासूम जवाब।
 
माताजी ने खोज-खाजकर 75 पैसे निकाले और अपने पढ़ाकू बेटे की हथेली पर ला रखे। बेटा, सीधा सिनेमा हॉल जा पहुँचा। भीड़ बिल्कुल थी ही नहीं। ‘नेताजी सुभाषचन्द्र बोस’ जैसी रोमांसहीन रूखी फिल्म के लिए भीड़ का मतलब भी क्या था। वह तो मेरे ही मन में नेताजी के लिए अपार श्रद्धा थी। एक देशभक्त की फिल्म देखने गया था इसलिए किसी भी प्रकार का अपराध-बोध मन में होने का सवाल ही नहीं था। 
 
खिड़की पर गया। टिकट खरीदा और जा बैठा सीट पर। फिर वही, एकदम ऐसा लगा जैसे फिल्म सामने पर्दे पर नहीं, दिमाग के किसी अन्दरूनी हिस्से में चल रही है, सपने की तरह। कई फिल्में देख लेने के बाद दिमाग ने यह स्वीकारना शुरू किया कि फिल्म उसके पर्दे पर नहीं, सामने, बाहर वाले पर्दे पर चल रही होती है।
 

बहरहाल, यह चस्का जब और बढ़ा तो दूसरा रास्ता अपनाना जरूरी हो गया। माताजी से एक की बजाय दो कॉपियों के पैसे माँगने शुरू किए। पाजामें में खोंसकर कॉपी ले जाना बंद। भीड़ के छँटने का इंतजार करना बंद। फिल्म लगने के पहले-दूसरे दिन ही टिकट खिड़की पर धावा बोलना शुरू। जबर्दस्त धक्का-मुक्की के बीच 70 पैसे वाले दो टिकट निकाले। एक आदमी को दो से ज्यादा टिकट शुरू-शुरू के दिनों में देते ही नहीं थे। चार दोस्तों को देखनी होती तो दो दोस्त लाइन में लगते। 
 
दो टिकट निकाले। एक-एक रुपये में दोनों ब्लैक किए और दो रुपये लेकर घर आ गया। माताजी का डेढ़ रुपया माताजी को वापस पकड़ाया। बाकी के 50 पैसे अंटी के हवाले किए। एक-दो दिन में 20 पैसे और मिलाकर फिर जा पहुँचा। अगर अभी भी ब्लैक चल रही होती तो एक रुपये में बेचकर घर आ बैठता और भीड़ के छँटने का इंतजार करता।
(चित्र साभार)

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