बेतरतीब पन्ने-6
डीएवी इंटर कॉलेज यानी दयानन्द एंग्लो वैदिक इंटर कॉलेज। आर्य समाज के शिक्षा विंग ने एंग्लो वैदिक विद्यालयों की जरूरत महसूस की थी। यह उसका प्रगतिशील दृष्टिकोण था। शिक्षा के प्रति यही दृष्टिकोण भारतेंदु का भी था।मैंने बुलन्दशहर के डीएवी इंटर कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की। वहाँ से बहुत-कुछ सीखा। मैंने सन् 1963 में वहाँ कक्षा छह में दाखिला लिया और बारहवीं पास करके वहाँ से निकला। उन दिनों नैतिक शिक्षा का भी एक पीरियड कक्षा आठ तक होता था जिसमें सभी धर्मों की शिक्षाओं और महान विभूतियों के बारे में बताने वाली एक पुस्तक भी पढ़ाई जाती थी। स्कूल का आधार क्योंकि ‘आर्य समाज’ था इसलिए उसके सिद्धांतों के बारे में अवश्य ही अधिक बताया जाता था। आर्य समाजी विद्वान टीकाराम ‘सरोज जी’ वहाँ जूनियर कक्षाओं के लिए कला अध्यापक थे जो शायद उससे आगले वर्ष सेवानिवृत्त हो गये थे। विद्यालय में उनका बहुत सम्मान था। इस सम्मान का एक उदाहरण यह था कि 1966 में, विद्यालय के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में धन एकत्र करने के उद्देश्य से, उनके हस्ताक्षर से युक्त एक कागज की बाकायदा बोली लगी थी और उनमें श्रद्धा रखने वाले एक छात्र ने उस कागज को 10 रुपये में खरीदा था। उन्हीं के चलते विद्यालय में शायद प्रतिमाह किसी भी रविवार को अथवा छुट्टी के दिन यज्ञ का आयोजन भी किया जाता था। उसकी घोषणा इस उद्देश्य से कि इच्छुक विद्यार्थी स्वेच्छा से आकर उसमें भागीदारी कर सकें, सार्वजनिक श्यामपट पर लिखी जाती थी। अनेक अध्यापकगण और विद्यार्थी उसमें सम्मिलित होने जाते भी थे। इसी के साथ एक चलन और था। वसंत पंचमी जैसे कुछेक विशेष पर्वों पर ‘यज्ञोपवीत’ संस्कार भी किया जाता था। इस कार्य के लिए आर्य समाज के किन्हीं संत को विद्यालय में बुलाया जाता था।
घर के धार्मिक वातावरण के कारण मेरी रुचि ‘यज्ञोपवीत’ में जागी। क्यों जागी? इसलिए कुछ अनुशासनहीनताएँ मुझमें थीं। मसलन, पिताजी की जेब से पैसे पार कर लिया करता था; कक्षा छोड़कर पूरे-पूरे दिन इधर-उधर घूमता था और शाम को नियत समय पर घर पहुँच जाता था आदि-आदि। मुझे लगा कि यज्ञोपवीत धारण करने के बाद जीवन में स्व-अनुशासन आएगा। मुझे याद है कि जिन दिनों मैं सातवीं में था, वसंत पंचमी के दिन ‘यज्ञोपवीत’ संस्कार का नोटिस श्यामपट पर लिखा गया। मैंने घर पर तो कुछ नहीं कहा; लेकिन यज्ञोपवीत दीक्षा के लिए नियत समय पर विद्यालय जा पहुँचा। और भी कई लड़के आये हुए थे। हम सबको संत जी के सामने उपस्थित किया गया।
यहाँ एक बात और बताता चलूँ। घर में भाई-बहनों में सबसे बड़ा मैं ही था। मुझसे बड़े मेरे छोटे चाचा जी थे। जो पैंट उनके मन से उतर जाती थी, पांयचों से घिस जाती थी, दर्जी को बुलाकर उसमें से मेरे नाप की नयीं पैंट निकलवा दी जाती थी। कोट भी इसी तरह मिलता था। मेरे जो कपड़े छोटे हो जाते थे, वे छोटे भाईयों के काम आते थे और अन्त में, जब वे किसी के भी लायक नहीं रह जाते थे, उनके बदले बर्तन खरीद लिये जाते थे। मतलब यह कि घर में जो कपड़ा आ गया, नीबू की तरह हम उसे पूरा निचोड़ते थे। यही हाल किताबों का भी था। वे बस एक ही बार खरीदी जाती थीं; फिर पुश्त-दर-पुश्त कई-कई साल तक कई-कई भाई-बहनों को अगली कक्षा में पहुँचाती रहती थीं। रद्दी में सिर्फ कापियाँ बेची जाती थीं, किताबें नहीं।
तो उस दिन जैसे ही मैं संत जी के सामने उपस्थित हुआ, उन्होंने कहा—“यह यज्ञ में हिस्सा नहीं ले सकता, इसने फुल पैंट पहना हुआ है।”
मैं हतप्रभ! अगर ऐसी बात थी तो श्यामपट पर लिखवा देना था। फुल पैंट 10-20 तो थे नहीं, जैसे-तैसे वह एक ही था। मेरे लिए तो पाजामा पहनकर आना ही अधिक सुविधाजनक और आसान था। दूसरी बात यह कि फुल पैंट का पहना जाना यज्ञोपवीत संस्कार की अयोग्यता का कारण क्यों? रहन-सहन और पहनावे को लेकर ऐसी कट्टरता कभी भी मेरे मन में नहीं रही।
हालांकि कबीर को तब तक उतना पढ़ा नहीं था, लेकिन नैसर्गिक कबीर अन्तर में धूनी रमाए बैठा था, ऐसा आज मुझे लगता है। कबीर ने कहा—क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा॥ यानी हृदय में यदि राम होने के बावजूद काशी जाकर प्राण त्यागने पड़ें तो फिर राम का मुझ पर क्या अहसान; क्योंकि काशी में मरने वाले तो आस्तिक-नास्तिक सबको वैसे ही स्वर्ग मिलता है और मगहर में मरने वालों को नरक! इसलिए मैं मगहर में ही प्राण त्यागकर इस पाखण्ड को दुनिया से मिटाऊँगा।
उस दिन ‘संतों’ की सोच में जो जड़ता महसूस की, वह हट नहीं सकी। उस दिन के बाद यज्ञोपवीत का विचार कभी भी मन में नहीं आया। यही निश्चय किया कि मैं बिना यज्ञोपवीत के भी अपने अनुशासन में रह सकता हूँ; और मैं रहा भी।
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