बेतरतीब पन्ने-13
‘दोस्ती’
 नाम से जो फिल्म आयी थी, वह मुम्बई-दिल्ली में 1964 में रिलीज हुई थी और 
बुलन्दशहर पहुँची थी तीन साल बाद 1967 में 
या पांच साल बाद 1969 में; 
ठीक-ठीक याद नहीं है। उस फिल्म को विशेषत: मुझे दिखाकर लाने की आज्ञा 
पिताजी ने चाचाजी को दी थी। इस बात की मुझे खुशी भी थी और आश्चर्य  भी। खुशी
 फिल्म देखने जाने की और आश्चर्य इस बात का कि वह आदेश निरामिष पिताजी की 
ओर से जारी हुआ था। 
चाचाजी हमें फिल्म दिखाने ले गये। सिनेमा हॉल 
मेरे लिए आश्चर्य-लोक जैसा था। एक साथ बिछी इतनी सारी कुर्सियाँ पहली बार 
देखी थीं। एक ही जगह पर चारों ओर घूमकर पूरे हॉल पर नजर डाली। चाचाजी ने 
सीट पर बैठ जाने को कहा और बराबर वाली सीट पर खुद भी बैठ गये। एकाएक पूरे 
हॉल की सारी बत्तियाँ गुल हो गयीं। घटाटोप अंधेरा! उसी के साथ, सामने वाले 
सफेद पर्दे पर आकृतियाँ उभरनी शुरू हुईं। चलती-फिरती-बोलती आकृतियाँ! मुझे 
लगा, जैसे मैं जाग नहीं रहा, सपना देख रहा हूँ। फिल्म सामने नहीं, मेरे 
मानस-पटल पर चल रही थी। वह सपना हॉल से बाहर आने के बाद  भी मेरे जेहन में 
कई दिनों तक स्थायी रहा। 
फिल्म दिखाने की जो आज्ञा पिताजी ने 
चाचाजी को दी, उसके पीछे बाबा अल्लामेहर थे। उनके द्वारा पिताजी को सुनाई 
गयी उसकी वह स्टोरी थी, जिसे फिल्म देखने के अगले दिन अपनी आदत के अनुसार 
उन्होंने पिताजी को सुनाया था। पिताजी उससे इतना अधिक प्रभावित हुए कि 
फिल्में न देखने-दिखाने के अपने ख्याल को उन्होंने तिलांजलि दे दी थी। 
बावजूद तिलांजलि के वह स्वयं अब भी नहीं गये थे, हमें ही भेजा। 
लेकिन,
 फिल्म देखकर आने की मेरी खुशी ज्यादा समय तक सँभल नहीं सकी। दोपहर बाद 3 
से 6 वाला शो देखकर शाम 7 बजे के करीब घर में घुसे होंगे। खाना खाया और 
आँखों में सुखद सपने को समोए, सोने की तैयारी में ही थे कि पिताजी 
चिल्लाए—“क्या बजा है?”
“नौ।” ऊपर, अलमारी में टिके टाइमपीस पर नजर डालते हुए मैंने डरी-जुबान में जवाब दिया।
“अभी-अभी
 फिल्म देखकर आये हो, आते भी भूल गये कि वह बेचारा गली के लैम्प-पोस्ट के 
नीचे बैठकर रात-रातभर पढ़ा करता था! तुम्हें घर में ही लैम्प मिला हुआ है 
फिर भी…! नालायक कहीं का!” 
‘तुझे’ की बजाय ‘तुम्हें’ कहकर वे कोई 
इज्जत नहीं बख्श रहे होते थे। उस ‘तुम्हें’ में दरअसल सभी भाई-बहन लपेट 
दिये जाते थे। उसे सुनते ही हमारी सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी। सब 
बिस्तर से उठकर अपने-अपने बस्ते की ओर दौड़ गये। मेरी समझ में आ गया कि 
क्यों पिताजी ने ‘दोस्ती’ दिखाने की कृपा हम पर की थी। 
“नियम बना 
लो—रात को 10 बजे तक पढ़ना और सुबह 4 बजे उठकर बैठ जाना।” पिताजी ने 
पटाक्षेपपरक वाक्य कहा, “पढ़ने-लिखने के बारे में खुद कुछ नहीं सोच सकते थे,
 देखकर तो कुछ सीख लिया होता!” 
यह अब रोजाना का किस्सा हो गया। ‘दोस्ती’ हमने देखी सिर्फ एक बार थी, लेकिन कोंचा उसने सालों-साल। फिल्म के एक गाने की लाइनें--'मैं भी इन्सान हूँ इक तुम्हारी तरह' बार जेहन में कौंध जातीं। सोचने लगा था, कि—प्रेरित करने वाली फिल्में इतनी भी अच्छी नहीं बना डालनी चाहिए कि बालकों की आजादी छीन लें, उनकी जान ही लेने लग जाएँ!
(चित्र साभार)
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