गुरुवार, 17 मार्च 2022

पिताजी के आगे टोटका भी हुआ फेल…/बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-15
 

आगे, एक समस्या और थी। किसी को बिना कुछ बताए लगातार 3 घंटे तक घर से और मुहल्ले से भी गायब रहना। इसका उपाय यह किया कि… उन दिनों बहुत-से लोगों के पास इंटरवल तक ही पिक्चर देखने का समय होता था। ऐसे लोगों से 1 रुपये वाली टिकट 50 पैसे में और 70 पैसे वाली टिकट 30-35 पैसे में मिल जाया करती थी। हमने रास्ता यह अपनाया कि पिक्चर को डेढ़-डेढ़ घंटे के दो टुकड़ों में देखना शुरू किया। एक बार 35 पैसे में बेची और दूसरी बार 35 पैसे में खरीदी। लेकिन एक बार ऐसा भी हुआ कि…गोटी फँस गयी।
 
उस दिन पिताजी को किसी काम से कहीं जाना था। इसलिए सुबह ही कह दिया था—“शाम को मेरे पास आ जाना। दुकान तुझे ही ‘बढ़ानी’ है।” 
 
दीपक को ‘बुझा देना’ और दुकान को ‘बंद कर देना’ सभ्य शब्द नहीं हैं। इनके लिए ‘बढ़ा देना’ का प्रयोग चलता है। जैसे कि दिवंगत व्यक्ति के लिए ‘मर गये’ का प्रयोग असभ्य होता है। 
 
तो दुकान बढ़ाने के लिए उस दिन मुझे जाना था। लेकिन, न्यू रीगल टॉकीज में उन दिनों ‘दो बदन’ ने हल्ला बोला हुआ था। टिकट खिड़की शो शुरू होने से सिर्फ आधा घंटा पहले खुलती थी जबकि सिनेमा देखने के शौकीन एक घंटा पहले ही लाइन में आ खड़े होते थे। उस लाइन को देखकर सहज ही अंदाजा लग जाता था कि सिनेमा देखने के शौकीन लोग अनुशासन-प्रिय होते हैं। ज्यादा भीड़ होती थी तो अनुशासित करने के लिए मालिक लोग एक-दो सिपाहियों को भी चौकी से बुलवा लेते थे। वे होते थे तो अपन लाइन में लगने की जेहमत नहीं उठाते थे क्योंकि उनके रहते लाल टिकट लाल और पीली टिकट पीली ही रहनी थी, किसी भी तरह उसे ‘काला’ नहीं किया जा सकता था। 
 

फिल्म कोई भी रही हो, जबर्दस्त भीड़ बटोर रही थी। असलियत यह थी कि शुरू के 2-3 दिन सभी फिल्में जबर्दस्त भीड़ बटोरती ही थीं। नायकों में राजकपूर, राजेन्द्र कुमार, शम्मी कपूर, शशि कपूर, विश्वजीत, मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, जॉय मुकर्जी। अशोक कुमार को कुछ फिल्मों में हालाँकि मैंने नायक के रूप में भी देखा, लेकिन हमारे समय तक वह पुरानी पीढ़ी में जा चुके थे; उस पीढ़ी पर पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, कमल कपूर आदि काबिज थे। उन दिनों की फिल्मी कहानियों में कॉमेडियन और खलनायकों के लिए जगह अवश्य रखी जाती थी। कॉमेडियन्स में जॉनी वॉकर और महमूद प्रमुख थे। इनके अलावा तो असित सेन, जगदीप, मोहन चोटी, सुन्दर, मुकरी यहाँ तक कि ओमप्रकाश भी कॉमेडियन का रोल कर लिया करते थे। खलनायकों में प्राण, मदन पुरी, प्रेम चोपड़ा थे। फिल्मी संसार में किशोर कुमार का स्थान बहुत अलग बैठता है। वह गायक, कॉमेडियन, एक्टर, निर्माता सब-कुछ थे। 
 
मेरी जेब में 70-75 पैसे पड़े थे। सोचा—30 पैसे कमा ही लिए जाएँ। न्यूरीगल टॉकीज जा पहुँचा। ‘मामा’ यानी खाकी वर्दी वाला गायब था। मैं लाइन में जा लगा। कुछ देर बाद, जैसे ही खिड़की खोले जाने की आवाज सुनाई दी, लाइन और अनुशासन के सारे बंधन समाप्त। कूदकर जा पहुँचा आगे। छोटे कद और दुबली काया का पूरा लाभ वहीं मिलता था। धक्का-मुक्की कर एक टिकट निकाली। ललचायी नजरों से काफी देर इधर-उधर ताकता घूमता रहा। एक भी खरीदार सामने नहीं आया। झक मारकर यही सोचना पड़ा कि आधी फिल्म देख ली जाए। ‘वापसी’ बेचकर पिताजी के पास चला जाऊँगा। मरे मन से इंटरवल तक सीट पर बैठा रहा। बेशक आधी फिल्म देखी भी; लेकिन मन कहीं और था इसलिए समझ में कुछ नहीं  आया। 
 
इंटरवल हुआ। टिकट के अद्धे को दिखाता हुआ मैं बहुत देर तक बाहर घूमता रहा। लेकिन साढ़े साती थी उस दिन! ‘वापसी’ खरीदने वाला भी एक भी कम्बख्त नहीं मिला। एक बार फिर झक मारी। वापस हॉल में जा बैठा। 35 पैसे का नुकसान उठाकर पिताजी के पास चले जाना मन को गवारा न हुआ। वह लालच भारी पड़ गया। वह शायद अकेला ही ऐसा अवसर था जब अपनी पसंदीदा फिल्म देखकर भी मन खुश नहीं था। दायित्वहीनता के एहसास से सिर भारी, बदन भारी, चाल भारी…! 
 
फिल्म खत्म हुई। भीड़ ने न्यू रीगल के पिछले गेट से बाहर निकलना शुरू किया। दिमाग ने अब पिताजी की मार से बचने के उपायों के बारे में सोचना शुरू कर दिया। 
 
इत्तेफाक की बात थी कि उसी दोपहर को एक दोस्त ने एक टोटका बताया था। कहा—“बलराम, सड़क से दो खिट्टे (खिट्टा यानी कुल्हड़ आदि मिट्टी के किसी बरतन का टुकड़ा) उठाओ। उनमें से एक के ऊपर थूककर उस दूसरे वाले से थूक को ढक दो। इन दोनों को किसी पेड़ की जड़ में रखकर आगे को निकल जाओ। पीछे मुड़कर कतई मत देखो। काम हर हाल बनेगा ही बनेगा।” 
 
बचने के उपाय सोचते हुए मुझे यह टोटका याद हो आया। सड़क से दो खिट्टे उठाए। एक पर थूका और दूसरे को उस पर ढककर सड़क किनारे वाले एक नीम की जड़ में रखकर आगे, घर की ओर बढ़ गया। घूमकर पीछे देखने का तो वैसे भी कोई मतलब नहीं था। 
 
घर के अंदर दाखिल हुआ। माताजी ने पूछा—“कहाँ चला गया था?”
 
“एक दोस्त के घर गया था।” मैंने लापरवाही से उत्तर दिया।
 
“कौन-से दोस्त के घर?” यह सवाल मेरे पीछे-पीछे घर में घुस आये पिताजी ने किया था। 
 
“मुंशीपाड़े में रहता है एक।” इस बार मैं लापरवाह रवैया न अपना सका था। 
 
यह सुनना था कि पिताजी की कठोर हथेली का झन्नाटेदार एक झापड़ मेरी कनपटी पर पड़ा। 
 
“झूठ बोलता है! फिल्म देखकर नहीं आया है?” पिताजी चीखे।
 
“नहीं तो।” मैं मेमने-सा मिमियाया। सोचा—पिताजी तुक्का मारकर सच उगलवाना चाह रहे हैं।
 
‘नहीं तो’ कहते ही एक और पड़ा, फिर एक और… एक और! बहुत पिटाई हुई। चीखने की आवाज घर के आँगन से निकलकर कुएँ की जगत पर बैठकर स्वीप खेल रहे मोहल्लेदारों तक जा टकराई। मुझे पिटाई का उतना दुख नहीं था, जितना टोटके के फेल हो जाने का। पहली ही बार में फेल हो गया था कम्बख्त! कम से कम आज, एक बार तो चला होता। चलो, यह भी अच्छा ही रहा कि बानगी में ही साले की जात पहचान में आ गयी थी।
 
हुआ यों कि मेरे न पहुँचने से नाराज पिताजी को खुद ही दुकान बढ़ानी पड़ गयी। वह घर आये। मेरे बारे में पूछा कि मैं कितने बजे घर से निकला था; और अनुमान के आधार न्यू रीगल के निकास द्वार पर एक ओर को जा खड़े हुए। फिल्म समाप्ति की भीड़ के साथ मुझे वहाँ से निकलते देखा। टोटका करते देखा। रास्ते में और भी जो-कुछ किया होगा, सब देखा और शब्दश: बताते हुए हर हरकत पर एक के हिसाब से झापड़ जड़ते गये। एक हाथ से मुट्ठी मे जकड़ी कलाई को मरोड़ते और दूसरे से झापड़ जड़ते हुए डाँटते--"नजर नीचे… नजर नीचे!"
 
उस दिन पैसों का लालच छोड़कर कर्त्तव्य-निर्वाह पर ध्यान दिया होता तो टोटका न करना पड़ता, टोटका न करना पड़ता तो उसके बारे में भ्रम बना रहता, भ्रम बना रहना ही हर टोटके के अस्तित्व और उसकी सफलता का रहस्य है। टोटका फेल न होता तो पिताजी के हाथों इतना न पिटना पड़ता कि बाद में खुद उन्हें भी दुखी होना पड़ा। सन्तान की पिटाई करके कोई भी पिता (या माँ) चैन से नहीं सो पाता है, लेकिन इस सच्चाई से हर शख्स पिता (या माँ) होने के बाद ही रू-ब-रू हो पाता है, उससे पहले नहीं।
(चित्र साभार)

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